जशपुर की चाय बागान

जशपुर की  चाय बागान बन गई छत्तीसगढ़ की  शान 

दार्जिलिंग, असम, शिमला, ऊंटी के चाय को टक्कर देने की तैयारी

जशपुरनगर चाय पीना किसे पसंद नहीं, कोई दूध वाली चाय पसंद करता है तो कोई काली व लाल चाय तो कुछ अदरक और नींबू तथा कम शक्कर के टेस्ट के साथ चाय पीना पसंद करते है। कुछ लोग ऐसे भी है जो सेहत की लिहाज में ग्रीन टी की आदत बनाते जा रहे हैं। सबको मालूम है कि चाय से नींद, आलस दूर होने के साथ उमंग और ताजगी का अहसास होता है। चाय का स्वाद चायपत्ती के दाने पर निर्भर करता है। दाने-दाने पर चाय के स्वाद का राज छिपा होता है। इसी स्वाद के आधार पर लोग दुकान से अपनी पसंद के आधार पर चाय का पैकेट लेना पसंद करते है। बागान से चाय कैसे तैयार होता है और फैक्ट्री से लेकर दुकानों तक फिर आप और हमारे चाय के प्याले तक कैसे पहंुचता है, इसकी प्रक्रिया भी बहुत दिलचस्प है। इस दिलचस्प कहानी की शुरूआत अब छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में हो गई है।

     वैसे तो जशपुर की पहचान यहां की विशिष्ट संस्कृति, समकालीन राजाओं एवं प्राकृतिक सुंदरता से भी है, लेकिन कुछ समय से जशपुर नगरी की पहचान यहां के चाय बागान से भी होने लगी है। पर्वतीय एवं ठंडे इलाकों में ही पनपने वाले चाय के पौधों की जशपुर में खेती कर बागान के रूप में विकसित करने और चायपत्ती बनाने की पहल से छत्तीसगढ़ की शान बढ़ने जा रही है। पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड में भी न तो चाय का उत्पादन होता है और न ही वहां बागान है। इस लिहाज से यहां का चाय बागान न सिर्फ छत्तीसगढ़वासियों को, अन्य राज्यों के पर्यटकों को भी आकर्षित करेगा। कई अन्य राज्यों में जहां चाय उत्पादन के लिए रसायनिक खाद एवं कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है वहीं जशपुर के चाय बागान में जैविक खाद का उपयोग किया जाता है। जैविक खाद से तैयार पौधे और चाय न सिर्फ चाय पीने वालों के सेहत को तंदुरूस्त रखंेगे, उन्हें चाय की चुस्की के साथ ताजगी और स्वाद का भी आनंद देंगे। सरकारी स्तर पर जशपुर जिले के बालाछापर में 45 लाख रूपये की लागत से चाय प्रसंस्करण केंद्र स्थापित कर उत्पादन प्रारंभ कर दिया गया है जहा ब्लैक एवं ग्रीन टी तैयार किया जा रहा है।
45 लाख की लागत से स्थापित हुआ प्रसंस्करण केंद्र
जशपुर के बालाछापर में वनविभाग के पर्यावरण रोपणी परिसर में चाय प्रसंस्करण यूनिट की स्थापना की गई है। लगभग 45 लाख रूपये की लागत से स्थापित यूनिट में 1200 किलोग्राम हरे पत्ते की प्रतिदिन प्रोसेसिंग क्षमता है। इसके माध्यम से 250 किलोग्राम प्रतिदिन चाय का उत्पादन किया जा सकता है। वन विभाग के एस.डी.ओ. एस. के. गुप्ता ने बताया कि वे स्वयं पर्वतीय प्रदेशों में होने वाले चाय उत्पादन की विधि को करीब से देखकर आये हैं। जशपुर में विकसित होती चाय बागान के लिहाज से चाय प्रसंस्करण यूनिट की आवश्यकता थी। अब इसके लगने से चाय के उत्पादन में आसानी होगी। यहा स्टोरेज की व्यवस्था भी की गई है। उन्होंने बताया कि पांच किलोग्राम चाय के हरे पत्ते से एक किलोग्राम चायपत्ती बनता है। यहां चार वेरायटी 520, 463, 494, 491 में से 520 एवं 463 का उत्पादन बेहतर माना गया है। चाय के पौधे की कोमल पत्तियों को तोड़कर उससे ग्रीन-टी एवं सामान्य चाय बनाई जा रही है। बागान से कुछ दिनों के अतंराल में 2 क्विंटल चायपत्ती तोड़ी जाती हैं। जिसकी प्रोसेसिंग करके 40 किलो चाय तैयार किया जाता है। प्रसंस्करण केंद्र में चाय के पत्तों को तोड़कर लाने के बाद टब में 15 से 16 घंटे तक सूखा किया जाता है। रोलिंग टेबल के माध्यम से सी.टी.सी. (कटिंग टी कटिंग) में कटाई के पश्चात् दाने के आधार पर ग्रेडिंग की जाती है।  

दार्जिलिंग के प्रशिक्षित बीरबहादुर सुब्बा कर रहे सहयोग
चाय प्रसंस्करण यूनिट की स्थापना के साथ ही मशीन संचालन के लिए दार्जिलिंग क्षेत्र के बीरबहादुर सुब्बा को जिम्मेदारी सौपी गई है। श्री सुब्बा लगातार 40 साल तक चाय उत्पादन के क्षेत्र में काम कर चुके है और कंपनी से रिटायर्ड है। अनुभवी होने की वजह से सुब्बा के सहयोग से यूनिट संचालन में आसानी हो रही है। उनके माध्यम से जशपुर जिले के युवाओं को मशीन संचालन का प्रशिक्षण भी प्रदान किया जा रहा है। श्री सुब्बा ने बताया कि जशपुर जिले में अन्य क्षेत्रों में भी चाय के बागान की संभावना है। यह कार्य लोगों के लिये फायदेमंद है। आने वाले समय में चाय के बागान के साथ ही उत्पादन में वृद्धि होगी।
विपणन और पैकेजिंग के लिये मिलेगा रोजगार
चाय प्रसंस्करण यूनिट की स्थापना के साथ ही चाय उत्पादन प्रारंभ हो गई है। हालांकि अभी एक लिमिट में चाय का उत्पादन किया जा रहा है लेकिन आने वाले समय में यहां से उत्पादित चाय को पैकेट में भरने और उसके विपणन के लिये मानव संसाधन की आवश्यकता होगी। अभी सारूडीह के ग्रामीण एवं महिला स्व सहायता समूह की सदस्य चाय के बागान का कामकाज बखूबी संभाल रही है। बिलासपुर, रायपुर, अंबिकापुर, दुर्ग सहित वन विभाग के अन्य संजीवनी केंद्रो में सारूडीह जशपुर का चाय बिक्री के लिये उपलब्ध है।
20 एकड़ में फेैला है सारूडीह चाय का बागान
पर्वतीय प्रदेशों के शिमला, दार्जिलिंग, उंटी, असम, मेघालय सहित अन्य राज्यों की चाय बागानों की तरह जशपुर के ग्राम सारूडीह का चाय बागान पर्वत और जंगल से लगा हुआ है। यह लगभग 20 एकड़ क्षेत्र में फैला है। कुल 18 हितग्राही हैं जिनके खेत में चाय के पौधे लगाये गये हैं। इनके द्वारा समूह गठित कर बागान की देखरेख वन विभाग के मार्गदर्शन में किया जा रहा है। यहां वर्ष 2011 में चाय के बागान की शुरूआत हुई लेकिन कुछ वर्षों तक बागान पूर्ण रूप से विकसित नही हो पाया। वर्ष 2017 में इस बागान को फिर से विकसित किया गया। चाय प्रसंस्करण केेंद्र लगने से पहले यहां समूह की महिलाओं द्वारा गर्म भठ्ठे के माध्यम से चाय तैयार किया जाता था,जिसमें न सिर्फ समय अधिक लगता था,मेहनत भी अधिक करनी पड़ती थी। यहां की चाय को विशेषज्ञों ने दार्जिंलिंग की चाय से बेहतर क्वालिटी का माना है। जिले के केसरा मनोरा में 30 एकड़ तथा गुटरी, लोखण्डी में 20 एकड़ में चाय बागान लगाए जाने की तैयारी विभाग ने की है। फिलहाल चाय के 3 लाख पौधे बालाछापर नर्सरी में तैयार हैं जिसमें से 2 लाख पौधों को इस साल लगाए जाने की तैयारी कर ली गई है। जशपुर जिले के सोगड़ा आश्रम परिसर पर भी लगभग 8 एकड़ में चाय का बागान है।
पर्यटन विकास एवं पर्यावरण संरक्षण के दिशा में भी है चाय बागान का महत्व
ग्राम सारूडीह का चाय बागान पर्वत और जंगल से लगा हुआ है। अनुपयोगी जमीन में बागान बन जाने से आस-पास न सिर्फ हरियाली है, पर्यटन एवं पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से भी सारूडीह और जशपरु की पहचान बढ़ रही है। चाय के बागान से पानी और मृदा का संरक्षण हुआ। बागान में चाय के पौधों को धूप से बचाने के लिए लगाये गये शेड ट्री को समय-समय पर काटा जाता ह,ै जिससे जलाऊ लकड़ी भी गांव वालों को आसानी से उपलब्ध हो जाती है। इससे जंगल का विनाश भी रूक गया है। यहां बागान के पौधों के बीच में मसाला की खेती को भी आजमाया जा रहा है आने वाले दिनों में मसाला उत्पादन में भी जशपुर जिले का नाम होगा। सारूडीह के इस बागान को आये दिन पर्यटक निहारने आते है। मात्र दस रूपये शुल्क में चाय के बागान का अदभुत नजारा दार्जिलिंग, उंटी, असम का अहसास कराता है। यहां की महिला समूह को विगत नौ माह में 50 हजार रूपये से अधिक की आमदनी पर्यटकों से हो गई है।
                                 

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