'छेरछेरा, माई कोठी के धान ल हेरहेरा' यह आवाज अब कम सुनाई देने लगी


भूपेंद्र साहू

धमतरी।अन्न दान का महापर्व छेरछेरा गुरुवार को  मनाया गया। छत्तीसगढ़ में यह पर्व नई फसल के खलिहान से घर आ जाने के बाद मनाया जाता है। इस दौरान लोग घर-घर जाकर लोग अन्न का दान माँगते हैं। बच्चे भी इस दिन दान मांगने निकलते हैं हालांकि यह परंपरा अब कम होते दिखाई दे रही है।

लोक परंपरा के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष छेरछेरा का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही बच्चे, युवक व युवतियाँ हाथ में टोकरी, बोरी,थैला आदि लेकर घर-घर छेरछेरा माँगते हैं। वहीं युवकों की टोलियाँ डंडा नृत्य कर घर-घर पहुँचती हैं। धान मिंजाई हो जाने के चलते गाँव में घर-घर धान का भंडार होता है, जिसके चलते लोग छेर छेरा माँगने वालों को दान करते हैं।

इन्हें हर घर से धान, चावल,सेमी,बेर व नकद राशि मिलती है। इस त्योहार के दस दिन पहले ही डंडा नृत्य करने वाले लोग आसपास के गाँवों में नृत्य करने जाते हैं। वहाँ उन्हें बड़ी मात्रा में धान व नगद रुपए मिल जाते हैं। इस त्योहार के दिन कामकाज पूरी तरह बंद रहता है। इस दिन लोग प्रायः गाँव छोड़कर बाहर नहीं जाते।


ग्रामीण क्षेत्रों में इस दिन सभी घरों में भजिया तथा अन्य व्यंजन बनाया जाता है। इसके अलावा छे र- छेरा के दिन कई लोग खीर और खिचड़ा का भंडारा रखते हैं, जिसमें हजारों लोग प्रसाद ग्रहण कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।


 इस दिन अन्नपूर्णा देवी,शाकम्भरी देवी की पूजा की जाती है। जो भी जातक बच्चों को अन्न का दान करते हैं, वह मृत्यु लोक के सारे बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस दौरान मुर्रा, लाई और तिल के लड्डू समेत कई सामानों की जमकर बिक्री होती है।आज के दिन द्वार-द्वार पर 'छेरछेरा, कोठी के धान ल हेरहेरा' की गूँज सुनाई देगी। पौष पूर्णिमा के अवसर पर मनाए जाने वाले इस पर्व के लिए लोगों में काफी उत्साह है। गौरतलब है कि इस पर्व में अन्न दान की परंपरा का निर्वहन किया जाता है।रामायण मंडलियों ने भी पर्व मनाने की खासी तैयारी की है और पंथी नृत्य करने वाले दल भी छेरछेरा का आनंद लेने तैयार हैं। 

यह उत्सव कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परंपरा को याद दिलाता है। उत्सवधर्मिता से जुड़ा छत्तीसगढ़ का मानस लोकपर्व के माध्यम से सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित रहा है।

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